खिलाफते बनू उमय्या के कारनामे पूरब और पश्‍चिम की फ़तह

अमीर मुआविया (رضي الله عنه) 

हज़रत हसन (رضي الله عنه) के ख़िलाफ़त से हटने के बाद अमीर मुआविया (رضي الله عنه) मुसलमानों की आम सहमति से ख़लीफ़ा स्‍वीकार कर लिए गए। अमीर मुआविया (رضي الله عنه) ने बीस साल हुकूमत की। उनके ज़माने में पूरी रियासत में सुख-शान्ति रही। नए-नए इलाक़ों पर विजय भी मिली। उन नए इलाक़ों में एक उत्‍तरी अफ्रीका है। उत्‍तरी अफ्रीका को उस ज़माने के मशहूर सिपहसालार 'उक़बा बिन नाफ़े' ने फ़तह किया। उक़बा बिन नाफ़े बडे़ उत्‍साही सिपहसालार थे। जब उन्‍होंने चढा़ई शुरू की तो कई सौ मील तक इलाक़े पर इलाक़े फ़तह करते चले गए, यहॉं तक कि समुद्र सामने आ गया। यह अटलांटिक महासागर (Atlantic Ocean) था जिसे Black Sea भी कहा जाता है। उक़बा ने जब देखा कि समुद्र उनके मार्ग में है तो उन्‍होंने अपना घोडा़ समुद्र में दौडा़ दिया और जोश में दूर तक चले गए फिर तलवार उठाकर कहा कि ऐ खुदा! अगर यह समुद्र बाधक न होता तो मैं दुनिया के आखिरी किनारे तक तेरा नाम बुलन्‍द करता हुआ चला जाता।

उत्‍तरी अफ्रीका चूँकि इस्‍लामी दुनिया से काफ़ी दूर था इसलिए उक़बा ने वहॉं 'क़ैरवान' (Kairwan) के नाम से एक शहर बसाया ताकि उस क्षेत्र में मुसलमान स्‍थायी रूप से रह सकें। यह शहर बाद में कई सौ वर्ष तक इस्‍लामी सभ्‍यता, ज्ञान और कला का बडा़ केन्‍द्र रहा। उक़बा बडे़ नेक बुज़ुर्ग थे। उनका मज़ार उत्‍तरी अफ्रीका में 'बस्‍करह' नामक बस्‍ती में अब भी मौजूद है।

अमीर मुआविया (رضي الله عنه) बहुत अच्‍छे हुक्‍मरॉं थे। इतने अच्‍छे कि बाद में उन जैसे हुक्‍मरॉं इस्‍लामी इतिहास में कम हुए। वह किसी काम के लिए जनता की आम सहमति के पाबंद नहीं थे, परन्‍तु कुछ न कुछ उसका लिहाज़ रखते थे और ज्‍़यादा कट्टर भी नहीं थे। उन्‍होंने अपने शासन के उसूल इस प्रकार बयान किए हैं –
''जहॉं मेरा कोडा़ काम देता है, वहॉं तलवार काम में नहीं लाता और जहॉं मेरी ज़बान काम देती है, वहॉ कोडा़ काम में नहीं लाता। यदि मेरे और लोगों के बीच बाल बराबर भी रिश्‍ता क़ायम हो तो मैं उसे नहीं तोड़ता। जब लोग उसे खींचते हैं तो मैं ढील दे देता हूँ और जब वे ढील देते हैं तो मैं खींच लेता हूँ।''   - तारीखे़ इस्‍लाम – भाग-II, पृ0-37, शाह मुईनुद्दीन अहमद नदवी     

उनके ज़माने में ऐसा अम्‍न था कि इराक़ का हाकिम जियाद कहता था, ''यदि कूफ़ा और ख़ुरासान के रास्‍ते में रस्‍सी का एक टुकडा़ भी खो जाए तो मुझे मालूम हो जाएगा कि किसने लिया।'' रातों को औरतें अपने घरों में किवाड़ खोलकर अकेली सोती थीं।

अमीर मुआविया (رضي الله عنه) का स्‍वभाव इतना अच्छा था कि वे किसी के साथ कठोरता से पेश नहीं आते थे, लोग उन्‍हें उनके मुँह पर भी बुरा-भरा कह जाते थे। वे अपने विरोधियों को भी इनाम और सम्‍मान देकर ख़ुश रखते थे। हज़रत हसन (رضي الله عنه), हज़रत हुसैन (رضي الله عنه) और उनके ख़ानदान वालों के साथ उनका व्‍यवहार बहुत अच्‍छा था और उनकी लाखों रुपये से मदद करते थे। अमीर मुआविया (رضي الله عنه) के ज़माने में जनकल्‍याण के बहुत काम हुए। नहरें खोदीं गई और सिंचाई के लिए तालाब बनाए गए। अमीर मुआविया (رضي الله عنه) पहले ख़लीफ़ा हैं जिन्‍होंने डाक का इंतिज़ाम किया। इसका तरीक़ा यह था कि मुल्‍क भर में थोडे़-थोडे़ फ़ासले पर तेज़ रफ़्तार घोडे़ हर समय तैयार रहते थे। सरकारी कारिंदे हर मंजिल पर उन घोडो़ं को बदलते हुए एक स्‍थान की ख़बरें दूसरे स्‍थान तक लाते और ले जाते थे। अमीर मुआविया (رضي الله عنه) ने शाम (सीरिया) के शहर दमिश्‍क़ को राजधानी बनाया। यह शहर मदीना और कूफ़ा के बाद इस्‍लामी ख़िलाफ़त की तीसरी राजधानी था।

अब्‍दुल मलिक (65 हि./685 ई. से 86 हि./705 ई.)

यज़ीद के बाद जो लोग ख़लीफ़ा हुए वे अमीर मुआविया (رضي الله عنه) की औलाद में से नहीं थे, लेकिन वे भी अमीर मुआविया (رضي الله عنه) की तरह ख़ानदान बनी उमय्या से सम्‍बन्‍ध रखते थे। अब्‍दुल मलिक 39 साल की उम्र में तख्‍़त पर बैठा। वह मदीने के बडे़ आलिमों (विद्वानों) में गिना जाता था। वह बडा़ साहसी और दृढ़-निश्‍चयी था। उसे प्रारंभ में कई बग़ावतों का सामना करना पडा़। उनमें खा़रजियों की बग़ावत जिसके केन्‍द्र इराक़ और ईरान थे, सबसे अधिक ख़तरनाक़ थी। ये बग़ावत कई साल जारी रही और अन्‍तत: मुहल्‍लब बिन अबी सफ़रह की कोशिशों से, जो अपने वक्‍़त का सबसे बडा़ सिपहसालार था, ये बग़ावतें कुचल दी गई और पूरी सल्‍तनत में शान्ति हो गई। अपने इन कारनामों के कारण अब्‍दुल मलिक ख़ानदान बनी उमय्या का बानी (संस्‍थापक) समझा जाता है। हालांकि उत्‍तरी अफ्रीका अमीर मुआविया के काल में ही इस्‍लामी ख़िलाफ़त का हिस्‍सा बन चुका था, लेकिन वहॉ के बर्बरवासी बार-बार बाग़ी हो जाते थे। अब्‍दुल मलिक के अहद में उत्‍तरी अफ्रीका को दोबारा फ़तह किया गया। यह काम एक सिपहसालार 'मूसा बिन नसीर' ने अंजाम किया, जो 79 हि./698 ई. में उत्‍तरी-अफ्रीका के हाकिम बनाए गए थे। मूसा ने न केवल जंगी कामयाबी हासिल की, बल्कि उन्‍होंने बर्बरियों में इस्‍लाम की तबलीग़ (प्रचार) भी की। उनके अहद में पूरा उत्‍तरी अफ्रीका मुसलमान हो गया और इस प्रकार बर्बर क़ौम इस्‍लामी ख़िलाफ़त के शान्तिप्रिय नागरिक बन गए। मूसा बिन नसीर ने समुद्री फ़ौज को भी तरक्‍़क़ी दी और इस उद्देश्‍य के लिए तूनिस (Tunis) में जहाज़ बनाने का कारख़ाना स्‍थापित किया। अब्‍दुल मलिक के अहद का एक और कारनामा 'कुब्‍बतुस-सख़रा' की तामीर (निर्माण) है।

अब्‍दुल मलिक का ज़माना दो बातों के कारण बडा़ मशहूर है। एक दफ़्तरों की ज़बान अरबी करना और दूसरा सिक्‍कों का ढालना। अब्‍दुल मलिक के ज़माने तक दफ़्तरों का काम स्‍थानीय ज़बान में होता था। उसने यह अरबी में करने का हुक्‍म दिया। हालांकि हज़रत उमर (رضي الله عنه) के ज़माने से इस्‍लामी सिक्‍के बनने लगे थे, लेकिन ये सिक्‍के बहुत कम होते थे, इसलिए इस्‍लामी रियासत में रूमी सिक्‍के का ज्‍़यादा प्रचलन था। अब्‍दुल मलिक के ज़माने में रूमी बादशाह ने यह धमकी दी कि वह रूमी सिक्‍कों पर पैग़म्‍बरे इस्‍लाम को गालियॉं लिखवाएगा। जब अब्‍दुल मलिक को यह मालूम हुआ तो उसने रूमी सिक्‍कों को दाखिला बंद कर दिया और दमिश्‍क़ और कूफ़ा में बडी़-बडी़ टक्‍सालें क़ायम की जहॉं रोज़ाना लाखों सिक्‍के ढलकर तैयार होने लगे।

वलीद बिन अब्‍दुल मलिक (86 हि./705 ई. से 96 हि./715 ई.)

अब्‍दुल मलिक के बेटे वलीद का ज़माना जंगों में जीत के कारण मशहूर है। इस ज़माने में जितनी जंगें जीती गई उनका हाल पढ़कर हज़रत उमर (رضي الله عنه) के ज़माने की याद आती है। ईरान की ओर इस्‍लामी ख़िलाफ़त की सीमा जैहून नदी तक थी। वलीद के सिपहसालार क़ुतैबा ने बुख़ारा, समरक़ंद, ख़ीवा और काशग़र पर विजय प्राप्‍त कर इस्‍लामी हुकूमत की हद चीन की सल्‍तनत तक बढा़ दी।

हिन्दुस्तान पर चाढाई

भारत में मुसलमानों का प्रवेश भी इसी काल में हुआ। इसका वाकिआ यूँ है कि लंका के राजा ने ख़लीफ़ा को एक जहाज़ में तोहफ़े भेजे थे। इस जहाज़ में बहुत से मुसलमान मर्द, औरतें और बच्‍चे भी थे जो लंका से अरब जा रहे थे। जब यह जहाज़ सिन्‍ध के समुद्री तट के निकट से गुज़रा तो यहॉं के समुद्री डाकुओं ने उसे लूट लिया और मुसलमान औरतों और बच्‍चों को क़ैद कर लिया। ख़लीफ़ा ने जब यहॉं के राजा को लिखा कि मुसलमानों और उनके माल को वापस कर दे तो उसने ऐसा करने से इन्‍कार कर दिया। बस अब क्‍या था, मुसलमान कोई कमज़ोर तो थे नहीं जो यह ज़ुल्‍म सहते। ख़लीफ़ा के हुक्‍म से मुहम्‍मद बिन क़ासिम को सिपहसालार बनाकर एक फ़ौज सिंध रवाना कर दी गई। मुहम्‍मद बिन क़ासिम की उम्र इस समय केवल सतरह साल थी परन्‍तु इतनी कम उम्र में वह इतना बुद्धिमान और वीर था कि एक पूरी फ़ौज का उसे सरदार बना दिया गया। उस ज़माने में बलूचिस्‍तान, सिंध और मुल्‍तान का इलाक़ा सिंध की हुकूमत में था और यहॉं के राजा का नाम दाहिर था। मुहम्‍मद बिन क़ासिम बलूचिस्‍तान के रास्‍ते से आया और सबसे पहले दैबल की बन्‍दरगाह को फ़तह किया जो करांची के मौजूदा शहर से क़रीब किसी जगह स्थित था। यहॉं मुहम्‍मद बिन क़ासिम ने ये तमाम क़ैदी रिहा करा लिए जिन्‍हें डाकुओं ने गिरफ़्तार कर लिया था। इसके बाह मुहम्‍मद बिन क़ासिम ने राजा दाहिर को पराजित किया। राजा दाहिर लडा़ई में मारा गया। इस तरह मुहम्‍मद बिन क़ासिम ने पूरा सिंध प्रांत और मुल्‍तान फ़तह कर लिया।

वलीद के ज़माने में तीसरी चढ़ाई पश्‍चिम में स्‍पेन और पुर्तगाल पर की गई। दोनों देश उस ज़माने में एक ईसाई बादशाह के क़ब्‍जे़ में थे और उन दोनों मुल्‍कों को मुसलमान अपने ज़मानें में 'अंदलुस' (Andlus) कहा करते थे। अंदलुस के एक ईसाई सरदार ने वहॉं के बादशाह रॉड्रिक के अत्‍याचार के खिलाफ़ मूसा बिन नुसैर से मदद मॉंगी। मूसा ने ख़लीफ़ा वलीद से इजाज़त लेने के बाद तारिक़ बिन जियाद को अंदलुस की ओर भेजा। तारिक़ ने वादी-लका की जंग में बारह हज़ार फ़ौज से रॉड्रिक की एक लाख फ़ौज को पराजित किया। रॉड्रिक जंग में मारा गया। उसके बाद मूसा भी अंदलुस आ गए और मूसा और तारिक़ ने मिलकर थोडे़ ही समय में न केवल पूरा अंदलुस फ़तह कर लिया, बल्कि वे पेरेनीज़ पहाड़ को पार करके फ्रांस की सीमा में भी प्रवेश कर गए। इन बडी़ जीतों के अलावा वलीद के ज़माने में मुसलमानों को और भी कई कामयाबियॉ हासिल हुई। एशियाए कोचक के मोर्चे पर रूमियों से लगातार लडा़ईयॉं होती रहीं और मुसलमानों ने उनसे कई इलाक़े छीन लिए। इस दौर में कई समुद्री लडा़ईयॉं भी हुई और मुसलमानों ने पश्‍चिमी रूम सागर में बिलयार्क टापूओं पर क़ब्‍ज़ा कर लिया।

इस्लामी खिलाफत का विस्तार

इन जीतों के कारण जो केवल दस साल की छोटी सी मुद्दत में हुई, इस्‍लामी हुकूमत का काफ़ी उत्‍थान हुआ। अब तक दुनिया में इतनी बडी़ सल्‍तनत पहले कभी क़ायम नहीं हुई थी। काशग़र (चीन की सीमा) से अटलांटिक महासागर तक सल्‍तनत की लम्‍बाई पॉंच हज़ार मील थी। यह इतना ज्‍़यादा फ़ासला है कि यदि कोई वयक्ति पैदल सफ़र करे, जैसा कि पुराने ज़माने में किया जाता था, और प्रत्‍येक दिन बीस मील चले तो पूर्वी किनारे से पश्‍चिमी किनारे तक आठ महीने से पहले नहीं पहुँच सकता।

हालॉंकि वलीद का ज़माना जंगों की कामयाबी के कारण मशहूर हैं, लेकिन उसके अहद में विकास के काम भी ख़ूब हुए। उसने मदीना की मस्जिदे नबवी को पहले से बडा़ कर दिया और उसे नए सिरे से बनाकर उसकी ख़ूबसूरती को बढा़ दिया। मस्जिदे नबवी को नए सिरे से बनवाने की ख़ुशी में हुकूमत की ओर से मदीना वालों में नक़द रुपये बॉंटे गए। राजधानी दमिश्‍क़ (Damascus) में भी बडी़ शानदार मस्जिद बनाई गई जो अब तक मौजूद है। यह मस्जिद जिसे 'जामे उमवी' कहा जाता है, इतनी शानदार थी कि जब एक बार रूम का राजदूत आया तो उसने कहा – ''हम लोग समझते थे कि मुसलमानों का उत्‍थान कुछ दिनों के लिए है, लेकिन इस इमारत को देखकर अन्‍दाज़ा हुआ कि मुसलमान एक जिंदा रहने वाली क़ौम है।''

वलीद के ज़माने में जनकल्‍याण के काम भी इतने अधिक हुए कि ख़िलाफ़ते राशिदा के बाद अब तक इतने नहीं हुए थे। सड़कों की मरम्‍मत की गई और उन पर मील के चिह्न लगाए गए। तमाम रास्‍तों पर कुऍं बनवाए गए। मुसाफिरों की सहूलत के लिए जगह-जगह मेहमानख़ाने क़ायम किए गए और सारी सल्‍तनत में अस्‍पताल खोले गए। वह दमिश्‍क़ के बाज़ार में निजी तौर पर कामों की निगरानी करता था। वलीद का एक बडा़ कारनामा यह है कि उसने लोगों के भीख मांगने पर पाबंदी लगा दी और अपाहिजों व मुहताजों के लिए दैनिक वज़ीफ़े तय कर दिए। अंधों और अपाहिजों की मदद के लिए आदमी मुक़र्रर किए। वलीद ने यतीमों (अनाथों) की परवरिश और उनके शिक्षण-प्रशिक्षण की भी व्‍यवस्‍था की। आलिमों के वज़ीफ़े मुक़र्रर किए ताकि वे इत्मिनान से लोगों को शिक्षा दे सकें। इसके अलावा वह नेक लोगों की भी माली मदद करता था।

अब्‍दुल मलिक और वलीद के दौर की तारीख़ में हम हज्‍जाज बिन यूसुफ़ को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। यह शख्‍़स इस्‍लामी ख़िलाफ़त के पूर्वी हिस्‍से का हाकिम था। इराक़, ईरान, तुर्किस्‍तान और सिंध उसके अधीन थे। उसकी हैसियत गवर्नर जनरल की थी और उसका हेड-क्‍वाटर कूफ़ा शहर में था। सिंध और तुर्किस्‍तान उसी की कोशिशों से इस्‍लामी दुनिया का हिस्‍सा बने। क़ुतैबा जिसने तुर्किस्‍तान को फ़तह किया था और मुहम्‍मद बिन क़ासिम जिसने सिंध को फ़तह किया था, उसी के नियु‍क्‍त किए हुए सिपहसालार थे। इस ज़माने का एक बहुत बडा़ सिपहसालार मुहल्‍लब बिन अबी सफ़रा जिसने इराक़ और ईरान में ख़ारजियों की बग़ावत को दबाया था और जिसने पाकिस्‍तान पर ख़ैबर-दर्रे के रास्‍ते  मुहम्‍मद बिन क़ासिम से भी पहले हमला किया था, उसी हज्‍जाज का नियुक्त किया हुआ सिपहसालार था। इसके अलावा हज्‍जाज का एक बडा़ कारनामा क़ुरआन को आसानी से पढ़ने के लिए उसमें ईराब (मात्राऍं) एवं नुक्‍़ता (बिन्‍दुओं) का प्रयोग करना है। इससे पहले अरबी लिपी में न नुक्‍़ते (बिन्‍दु) होते थे और न जे़र व ज़बर (मात्राऍं)।

सुलैमान बिन अब्‍दुल मलिक (96 हि./715 ई. से 99 हि./717 ई.)

वलीद के बाद उसका भाई सुलैमान बिन अब्‍दुल मलिक ख़लीफ़ा हुआ। हालांकि उसने सिर्फ़ ढाई साल तक हुकूमत की पर उसके शासनकाल में कई महत्‍वपूर्ण घटनाऍ घटीं। सुलैमान के दौर की अहम घटना क़ुस्‍तनतीनीया (Constantinople) का घेराव है। क़ुस्‍तनतीनीया पर यह हमला जल-थल दोनों रास्‍तों से किया गया था। इस हमले का नेतृत्‍व सुलैमान के भाई मुसलिमा बिन अब्‍दुल मलिक ने किया था, जो इससे पहले रूमियों के साथ जंगों में प्रसिद्धि पा चुका था। सुलैमान एक दीनदार और बुद्धिमान शासक था। उसने अपने दौर में उन अत्‍याचारों के प्रायश्‍चित करने की कोशिश की थी जो वलीद के दौर में हज्‍जाज और दूसरे गवर्नरों के कारण लोगों को उठानी पडी़ थीं। सुलैमान को उसके सुधारवादी स्‍वभाव और नेक कामों के कारण तारीख़ (इतिहास) में 'मिफ़ताहुल-ख़ैर' यानी भलाई की कुंजी के नाम से जाना जाता है। उसके नेक कामों में सबसे ज्‍़यादा महत्‍वपूर्ण काम यह है कि उसने उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ जैसे आदमी को अपना उत्‍तराधिकारी घोषित किया, हालांकि शाही ख़ानदान के दूसरे अहम लोग और ख़ुद उसके भाई एवं लड़के मौजूद थे।

उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ (99 हि./717 ई. से 101 हि./720 ई.)

हालांकि वलीद का दौर सांस्‍कृतिक विकास, जंगों की जीत और जनकल्‍याणकारी कामों के लिहाज़ से बेमिसाल था, लेकिन उमवी दौर में यदि कोई हुक्‍मरॉं महान कहलाने का हक़दार है तो वह हज़रत उमर बिन अज़ीज़ (رحمت اللہ علیہ) हैं। इन्‍होंने सिर्फ़ दो साल पॉंच महीने ख़िलाफ़त की, लेकिन इस थोडे़ समय में खु़ल्‍फ़ाए राशिदीन की याद ताज़ा कर दी। उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ ख़लीफ़ा बनने से पहले बडे़ ऐश और आराम की ज़िन्दगी गुज़ारते थे और बडे़ नाज़ुक मिज़ाज थे। आप अच्‍छे से अच्‍छा लिबास पहनते थे। एक बार जो लिबास पहन लेते फिर दोबारा नहीं पहनते थे। लेकिन ख़लीफ़ा बनने के बाद उनकी ज़िन्दगी बिल्‍कुल बदल गई। शाही ठाट-बाट से मुँह मोड़ लिया और सादा ज़िन्दगी अपना ली।

उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ (رحمت اللہ علیہ) अपने वक्‍़त के बडे़ आलिमों में से एक थे। उनका अख़लाक व किरदार भी सहाबा (رضي الله عنه) जैसा था। उनके पिता अब्‍दुल अज़ीज़ ख़लीफ़ा अब्‍दुल मलिक के भाई थे और मिस्र के प्रसिद्ध गवर्नर थे।

जब आप (रह0) को यह यक़ीन हो गया की किसी को आपकी खिलाफत से मतभेद नहीं है तो आपने यह ज़िम्मेदारी क़बूल कर ली और एक तक़रीर की:

''ख़ुदा ने जो चीज़ हलाल कर दी है वह कियामत तक हलाल है और जो चीज़ हराम कर दी है वह कियामत तक हराम है। मैं अपनी तरफ़ से कोई फ़ैसला करने वाला नहीं हूँ, बल्कि सिर्फ़ अल्‍लाह के आदेशों को लागू करने वाला हूँ। किसी को यह हक़ नही कि ख़ुदा की नाफ़रमानी में उसका हुक्‍म माने। मैं तुममें कोई विशिष्‍ट आदमी नहीं हूँ, बल्कि एक मामूली इन्‍सान हूँ। हॉ! अल्‍लाह ने मुझ पर तुम्‍हारी अपेक्षा कुछ ज्‍़यादा जिम्‍मेदारियॉं डाल दी हैं।''

उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ (رحمت اللہ علیہ) ख़ुल्‍फाए राशिदीन की तरह खु़द भी बैतुलमाल से सिर्फ़ इतनी रक़म लेते थे जो ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए ज़रूरी थी। इस मामले में आपने जिस एहतियात का प्रदर्शन किया वह इतिहास के पन्‍नों में दर्ज हो गई है। एक बार हज़रत उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ (رحمت اللہ علیہ) चिराग़ की रौशनी में सरकारी काम कर रहे थे कि एक शख्‍़स उनसे मिलने आया। काम चूँकि निजी था इसलिए हज़रत उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज (رحمت اللہ علیہ) ने चिराग़ बुझा दिया और अँधेरे में बातें करने लगे। उस शख्‍़स ने जब इसका कारण पूछा तो आपने जवाब दिया – ''यह सरकारी चिराग़ है और मैं तुमसे निजी बातें कर रहा हूँ, इसलिए मैने चिराग़ बुझा दिया। बैतुलमाल का पैसा हम निजी काम पर ख़र्च नहीं कर सकते।''

इसी प्रकार एक बार बैतुलमाल में बहुत से सेब आए। हज़रत उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ (رحمت اللہ علیہ) उन्‍हें आम मुसलमानों में बॉंट रहे थे कि उनका छोटा लड़का एक सेब उठाकर खाने लगा। यह देखकर आपने उसके मुँह से सेब छीन लिया। वह रोने लगा और मॉं से शिकायत की। मॉं ने बाज़ार से सेब मँगवा दिया। हज़रत उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ (رحمت اللہ علیہ) जब घर आए तो सेब की ख़ुशबू महसूस करके बीवी से पूछा कि सरकारी सेब तो यहॉं नहीं आया ? जब बीवी ने सारी बात बताई तो आपको इत्मिनान हुआ और बीवी से कहा – ''अल्‍लाह की क़सम ! मैने उसके मुँह से सेव नहीं छीना था, बल्कि अपने दिल से छीना था इसलिए कि मुसलमानों के हिस्‍से के सेब के बदले मैं अपने को अल्‍लाह के सामने रुसवा न कर दूँ।''

न्‍याय के मामले में उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ मुस्लिम और गै़र-मुस्लिम में फ़र्क़ नहीं करते थे। अत: आपने अपने समय में जिम्मियों और गै़र-मुस्लिमों के अधिकारों की हिफ़ाज़त की। ज़िम्‍मी के ख़ून की क़ीमत मुसलमानों के ख़ून के बराबर क़रार दी। कोई मुसलमान जिम्मियों का माल नहीं हड़प सकता था। जब आपने शाही ख़ानदान से ज़मीनें लेकर उनके असल मालिकों को वापस दिलाई तो कुछ ऐस गिरजाघरों को भी ईसाइयों को वापस दिलाया जो ग़लत तरीक़े से ले लिए गए थे। जब शहज़ादा अब्‍बास बिन वलीद को उसकी ज़मीन वापस करने का हुक्‍म दिया, जो एक ईसाई से छीनी गई थी, तो अब्‍बास ने अपने पक्ष में सबूत के तौर पर कहा कि यह मेरे बाप वलीद ने दी थी। लेकिन उमर बिन अब्‍दूल अज़ीज़ (رحمت اللہ علیہ) ने उसकी दलील को यह कहकर रद्द कर दिया कि अल्‍लाह की किताब वलीद के प्रमाण पर भारी है। यानी क़ुरआन के हुक्‍म के आगे वलीद के हुक्‍म की कोई अहमियत नहीं। और इस प्रकार ईसाई को ज़मीन वापस दिला दी।

हज़रत उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ (رحمت اللہ علیہ) के शरीयत को सहीह तरीक़े से लागू करने का नतीजा यह निकला कि उनके ज़माने में बहुत अधिक गै़र-मुस्लिमों ने इस्‍लाम क़बूल कर लिया। सिन्‍ध में भी तेज़ी से इस्‍लाम फैला। यहॉं तक कि राजा दाहिर का लड़का जयसिंह भी इस्‍लाम ले आया। आपके समय में ख़ुरासान और तुर्किस्‍तान में रास्‍तों पर मुसाफिरों के लिए सराऍं बनाई गई जहॉं स्‍वस्‍थ मुसाफिर एक दिन और बीमार मुसाफिर दो दिन नि:शुल्‍क रह सकता था। मुल्‍क में जितने अपंग और अपाहिज थे सबके नाम रजिस्‍टरों में लिखकर उनका ख़र्च मुक़र्रर किया गया। हज़रत उमर फ़ारूक (رضي الله عنه) के ज़माने की तरह नवजात शिशु के भी वज़ीफ़े मुक़र्रर किए गए और जो ग़रीब व्‍यक्ति क़र्ज़ अदा नहीं कर सकता था उसके क़र्ज़ अदा करने की व्‍यवस्‍था की गई। हक़ीक़त यह है कि जनकल्‍याण के इन कामों को देखकर आश्‍चर्य होता है कि ढाई साल की अल्‍पावधि में इतने काम कैसे अंजाम दिए गए। इन सुधारों का नतीजा यह हुआ कि पूरी इस्‍लामी रियासत में ख़ुशहाली आ गई और कोई सदक़ा और भीख लेने वाला भी नहीं मिलता था।

हिशाम बिन अब्‍दुल मलिक (105 हि./725 ई. से 125 हि./743 ई.)

हिशाम, जिसने बीस साल हुकूमत की, ख़ानदान बनी उमैय्या का आखिरी बडा़ शासक है। वह बडा़ नेक और कुशल प्रशासक था। उसके इन्‍साफ़ का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह बैतुलमाल में उस वक्‍़त तक आमदनी की रक़म दाखिल नहीं करता था जब तक चालीस आदमी यह गवाही न दे देते कि यह रक़म जाइज़ तरीक़े से हासिल की गई है। वह इन्‍साफ़ में मुस्लिम और गै़र-मुस्लिम के बीच फ़र्क़ नही करता था। उसके अहद में शाम (सीरिया) में रुसाफ़ा और सिंध में मंसूरा और महफ़ूज़ के शहर आबाद हुए। हिशाम के ज़माने में ख़ुरासान, तुर्किस्‍तान, अरमीनिया, आज़रबाइजान और उत्‍तरी अफ्रीका में सख्‍़त बग़ावतें और लडा़इयॉं हुई, लेकिन उन सब बग़ावतों को दबा दिया गया। ख़ुरासान और तुर्किस्‍तान की लडा़इयों में वहॉं के हाकिम नसर बिन सैयार ने जो एक कुशल प्रशासक था, बहुत नाम कमाया। अर‍मीनिया और आज़रबाइजान पर गै़र-मुस्लिम तुर्को की एक शाख़ा ख़ज़र ने, जो दक्षिण रूम पर हुक्‍मरॉं थी, लगातार हमले किए परन्‍तु उन तमाम हमलों को नाकाम कर दिया गया और उमवी शहज़ादा मरवान बिन अब्‍दुल मलिक दागिस्‍तान से गुज़रता हुआ ख़ज़र की राजधानी बलंजर तक पहुँच गया। इन हमलों के कारण ख़ज़र सल्‍तनत की राजधानी कई सौ मील उत्‍तर में वालगा नदी के किनारे आतिल नामक स्‍थान पर ले जाई गई।

हिशाम के ज़माने में सिन्‍ध में इस्‍लामी शक्ति और मज़बूत हुई। सिन्‍ध का गवर्नर जुनैद (107 से 111 हि.) बडा़ योग्‍य सूबेदार था। उसने कश्‍मीर तक लगभग तमाम इलाक़े जीत लिए जो अब पाकिस्‍तान कहलाता है। इसके अलावा उसने भारत में मारवाड़, उज्‍जैन, गुजरात और भडो़च तक सारा इलाक़ा फ़तह कर लिया। हालांकि बाद के सूबेदार इन इलाकों पर क़ब्‍ज़ा बरक़रार नहीं रख सके। हिशाम के अहद की फ़ौजी मुहिमों में सबसे महत्‍वपूर्ण अंदलुस के गवर्नर अब्‍दुर्रहमान नमाफ़क़ी का फ्रांस पर हमला है। अब्‍दुर्रहमान प्रेनीज़ को पार करके फ्रांस में दाखिल हुआ और दक्षिणी एवं पश्‍चिमी फ्रांस को फ़तह करता हुआ लूइ नदी के किनारे तोरस तक पहुँच किया जो पेरिस से सिर्फ़ डेढ़ सौ मील दूर है।

उमवी ख़िलाफ़त में आलिमों (विद्वानों) की भूमिका 

यह वह जमाअ़त थी जिसने क़ुरआन व सुन्‍नत एवं इस्‍लामी दृष्टिकोण की व्‍यवस्‍था बिना किसी ख़ौफ़, लालच और निजी स्‍वार्थ के की। उन्‍होंने हुक्‍मरानों की ग़लत बातों को इस्‍लाम का हिस्‍सा नहीं बनने दिया। उन्‍हें जब भी मौक़ा मिलता वह हक़ बात कहने में झिझक महसूस नहीं करते थे। आलिमों ने हुक्‍मरानों के ग़लत फ़ैसलों के आगे कभी सिर नहीं झुकाया और हक़ की आवाज़ बुलन्‍द रखने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की। आलिमों ने अपनी सच्‍ची बातों से जनता को अपना प्रशंसक बना लिया था। अवाम के हमदर्द, दीन के रक्षक और अख़लाक़ एवं इन्‍साफ़ के अलमबरदार की हैसियत से उनकी महानता बढ गई थी।

रियासते इस्‍लामी की शासन-व्‍यवस्‍था उमवी खिलाफ़त में 

उमवी दौर में इस्‍लामी ख़िलाफ़त क्षेत्रफल के लिहाज़ से बडी़ विशाल हो गई थी। इतनी विशाल रियासत अब तक दुनिया में किसी क़ौम ने क़ायम नहीं की थी। पूरब में कूफ़ा के वाली को और पश्‍चिम में मिस्र के वाली को इस लिहाज़ से विशेष महत्‍व प्राप्‍त था कि उनकी हैसियत गवर्नर की नहीं बल्कि गवर्नर-जनरल की थी। पूरब के सारे इलाक़े ईरान, अफ़गानिस्‍तान, तुर्किस्‍तान और सिन्‍ध कूफ़ा के वाली के अधीन होते थे और वही उन इलाक़ों के लिए गवर्नर मुक़र्रर करता था। अत: सिन्‍ध और तुर्किस्‍तान कूफ़ा के वाली हज्‍जाज बिन यूसुफ़ ही की कोशिशों से फ़तह किए गए। इसी प्रकार पश्‍चिम में सम्‍पूर्ण उत्‍तरी अफ्रीका और कुछ मामलों में अंदलुस (स्‍पेन) भी या तो मिस्र के वाली के अधीन होते थे या उत्‍तर-पश्‍चिम अफ्रीका के वाली के अधीन जिसका केन्‍द्र क़ैरवान था। उमवी दौर में बढ़ती हुई ज़रूरतों के तहत कई नए ओहदे (पद) भी क़ायम किए गए। (1) किताबत, (2) हाजिब, (3) क़ाज़ी और (4) साहबुल-बरीद।

उमवी ख़िलाफ़त में सुरक्षा-व्‍यवस्‍था 

चीन के अतिरिक्‍त दुनिया का कोई देश ख़िलाफ़ते इस्‍लामिया के बराबर बडी़ फ़ौज मैदाने जंग में नहीं ला सकता था। इस दौर में मुसलमान आसानी से दो लाख, बल्कि उससे ज्‍़यादा फ़ौज के साथ मैदाने जंग में आ सकते थे। फ़ौज ख़िलाफ़ते राशिदा के मुक़ाबले में ज्‍़यादा बेहतर असलहों से लैस हो गई थी और फ़ौजी संगठन भी पहले के मुक़ाबले में अब बेहतर था। मुसलमानों के पास आधुनिक हथियारों की अब समय के अनुसार कोई कमी नही थी। जल-सेना में भी इस दौर में काफ़ी विकास हुआ। शाम, मिस्र और तूनिस (Tunis) में जहाज़ बनाने के कारख़ाने खोले गए जो 'दारुल सनाआ' कहलाते थे। इस दौर में रूम-सागर में मुसलमान सबसे बडी़ समुद्री शक्ति बन चुके थे। क़बरस (Cyprus) रोदस (Rhodes) और बिलयालक के टापू फ़तह किए गए और सक़लिया, सरदानिया और यूनान के विभिन्‍न हिस्‍सों पर लगातार समुद्री हमले किए गए। सुलैमान के ज़माने में क़ुस्‍तनतीनिया पर मुसलमानों ने जो हमला किया था उसमें एक हज़ार आठ सौ जहाज़ इस्‍तेमाल किए गए थे। इससे पहले दुनिया के इतिहास में शायद ही किसी समुद्री मुहिम में इतनी बडी़ तादाद में जहाज़ों ने हिस्‍सा लिया हो।

उमवी ख़िलाफ़त में सांस्‍कृतिक विकास 

बनी उमय्या का दौर आर्थिक ख़ुशहाली का ज़माना था। पूरब के वे तमाम इलाक़े जो इस्‍लामी जीतों से पहले ईरानियों और रूमियों की निरन्‍तर जंगों के कारण उजड़ गए थे, एक बार फिर आबाद हो गए। सौ साल की शान्तिपूर्ण और मज़बूत हुकूमत के नतीजे में खेती-बाडी़ और उद्योग-धन्‍धे का विकास हुआ। कूफ़ा, बसरा और फिस्‍तात के शहर जिनकी बुनियाद ख़िलाफ़ते राशिदा में पडी़ थी, अब सल्‍तनत के सबसे बडे़ शहर चुके थे। दमिश्‍क़, स्‍कंदरिया, अस्‍फ़हान, रे और नेशापुर के शहरों का और विस्‍तार किया गया। उत्‍तरी अफ्रीक़ा में क़ैरवान की बुनियाद पडी़ जो दूसरी शताब्‍दी (हिजरी) के प्रारंभ तक इस क्षेत्र में व्‍यापार, शिक्षा एवं इस्‍लामी सभ्‍यता का सबसे बडा़ मरकज़ बन गया था। फिलस्‍तीन में रमला, ईरान में शीराज़ और सिन्‍ध में मनसूरा और महफ़ूज़ा के नए शहर आबाद हुए।

उमवी दौर में महलों और शानदार इमारतों की अधिकता के कारण शहर की रौनक़ में चार चॉंद लग गए थे। यहॉं की जल-आपूर्ति की व्‍यवस्‍था बहुत अच्‍छी थी। झीलों का पानी खुली और बन्‍द नालियों के ज़रिए हर घर में पहुँचा दिया गया था और हर बडे़ घर के आंगन में फ़व्‍वारे लग हुए थे। सांस्‍कृतिक विकास जीवन के हर विभाग में हुआ और यदि इमारतें एक मुल्‍क की ख़ुशहाली और दौलतमंदी का सुबूत होती है तो फिर उमवी दौर में बनने वाली इमारतें उस दौर की ख़ुशहाली की गवाही देती हैं। इन इमारतों के निर्माण में पहली बार रूमी, शामी, ईरानी और हिन्‍दुसतानी कारीगरों ने मिलकर काम किया और इस प्रकार एक नए निर्माण-कला की बुनियाद पडी़।

उमवी ख़िलाफत का केन्‍द्र दमिश्‍क़ था जो न केवल दुनिया के प्राचीनतम नगरों में से था, बल्कि एक ऐसे इलाक़े में स्थित था जो उस ज़माने में सभ्‍यता एवं संस्‍कृति का केन्‍द्र था। अमीर मुआविया (رضي الله عنه) के ज़माने में बसरा, कूफ़ा और फिस्‍तात (मिस्र) में पक्‍की और शानदार मस्जिदें बनाई गई। बसरा की जामे-मस्जिद और दारुल-अमारत वहॉं के गनर्वर जियाद ने बनवाए थे। बसरा की इस मस्जिद को यह प्रधानता प्राप्‍त है, कि इसमें पहली बार पत्‍थर के स्‍तंभ इस्‍तेमाल किए गए और एक मीनार भी था जो संभवत: इस्‍लामी दुनिया का पहला मीनार था। कूफ़ा की जामे-मस्जिद भी जियाद ने एक ईरानी कारीगर से बनवाई थी। इसमें साठ हज़ार आदमी नमाज़ पढ़ सकते थे। मिस्र में जामे अम्र बिन आस को अमीर मुआविया (رضي الله عنه) के ज़माने में विस्‍तृत किया गया और इसमें चार मीनार बढा़ए गए।

उमवी दौर के निर्माण-कला का पहला शाहकार क़ुब्‍बतस-सख़रा है, जो अब्‍दुल मलिक के ज़माने में बैतुल मक्दिस में बनाया गया था। मुसलमानों की निर्माण-कला का यह सबसे अच्‍छा और सबसे पहला नमूना है जो आज भी मौजूद है।

वलीद का दौर निर्माण-कला का सुनहरा दौर था। इस ज़माने में सबसे ज्‍़यादा और सबसे अच्छी  इमारतें बनाई गई। वलीद के ज़माने में भवन-निर्माण की अभिरूचि इतनी आम हो गई थी कि जब लोग आपस में मिलते थे तो उनकी बात-चीत का सबसे बडा़ विषय भवन निर्माण ही होता था। उस दौर की सबसे शानदार इमारतें दमिश्‍क़ की जामे उमवी और मदीना की मस्जिदे नबवी है। जामे उमवी में संगमरमर का इस्‍तेमाल किया गया था और दीवारों में लाजवरदी (एक प्रकार का नीला पत्‍थर) का काम किया गया था। मस्जिद में रौशनी के लिए छ: सौ क़ंदीलें सोने की ज़ंजीरों से लटकी थीं। हज़रत उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ ने अपने ज़माने में सोने-चॉंदी के इस इस्‍तेमाल को फ़ज़ूलख़र्ची समझकर तमाम क़ीमती सामान निकलवाकर बैतुलमाल में दाखिल कराने का इरादा कर लिया था। इत्तिफ़ाक़ से उसी ज़माने में एक रूमी राजदूत दमिश्‍क़ आया हुआ था। उसने जामे मस्जिद को देखकर कहा – ''हम लोग समझते थे कि मुसलमानों का उत्‍थान कुछ दिनों का है, लेकिन इस इमारत को देखकर अंदाज़ा हुआ कि मुसलमान एक जिन्‍दा रहने वाली क़ौम है।'' रूमी राजदूत की यह राय सुनने के बाद हज़रत उमर बिन अब्‍दुल अज़ीज़ (رحمت اللہ علیہ) ने अपना इरादा स्‍थगित कर दिया।   

उमय्यी ख़िलाफ़त में सामाजिक जीवन 

शस्‍त्र निर्माण, जहाज़ निर्माण, वस्‍तु निर्माण और बरतन निर्माण उस ज़माने के विशेष उद्योग-धन्‍धे थे। हिशाम के दौर में रेशमी कपडे़ के उद्योग ने विशेषकर तरक्‍़क़ी की थी। उमवी दौर के आलिम भी, जिनकी ज़िन्दगी में इबादत और सादगी का ज़ोर होता था, अच्‍छा लिबास पहनते थे। इमाम ज़ैनुल आबिदीन, इमाम जाफ़र साहिदक़, इमाम हसन बसरी, इमाम अबू हनीफ़ा और इमाम मालिक (رحمت اللہ علیہ) सब अच्‍छा लिबास पहनने वाले थे। इमाम मालिक से जब किसी ने सवाल किया कि आप आलिम होकर इतना क़ीमती लिबास क्‍यों पहनते हैं तो उन्‍होंने जवाब दिया कि हमारे ज़माने में आलिमों का यही तरीक़ा है।

मुसलमान औरते़ं इस्‍लामी निर्देश के मुताबिक़ परदा करती थीं। औरतें ज़रूरी कामों एवं मनोरंजन के लिए बाहर निकलती थीं और ज्ञान-विज्ञान की गोष्ठियों में सम्मिलित होती थीं। परन्‍तु यह गोष्ठियॉं औरतों-मर्दो की मिली-जुली नहीं होती थी, बल्कि औरतें आम तौर पर परदे के पीछे बैठती थीं।

उमवी खिलाफ़ में ज्ञान-विज्ञान

मुसलमानों में ज्ञान-विज्ञान का प्रारंभ उमवी दौर ही में शुरू हो गया था और अब्‍बासी दौर में इसको तरक्‍़क़ी मिली। मुसलमानों में ज्ञान-विज्ञान की गतिविधियों का असल प्रेरक इस्‍लाम था।

इस्‍लामी शिक्षाओं को समझने के लिए भी विभिन्‍न ज्ञान का हासिल करना ज़रूरी था। उदाहरणत: 'सर्फ़ व नहव' (व्‍याकरण) और शब्‍द और ज्ञान की बुनियाद इसलिए पडी़ कि उसके बिना क़ुरआन के अर्थ को नहीं समझा जा सकता था। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने क़ुरआन पढा़ने वालों को शब्‍द–ज्ञान का ज्ञाता होना ज़रूरी क़रार दिया। इस बात ने अरबी भाषा के रिसर्च के लए रासते खोले। इन ही कारणों से हज़रत अली (رضي الله عنه) और उनके शागिर्द अबुल असवद दूइली ने इल्‍मे नहव के प्रारंभिक उसूल प्रतिपादित किए। 'इल्‍मे तफ़सीर' की बुनियाद इसलिए पडी़ की क़ुरआन में ज्ञान-विज्ञान के जो मोती हैं उनकी व्‍याख्‍या की जाए। हदीसें इसलिए संकलित की गई कि क़ुरआन की शिक्षाओ, रसूल (صلى الله عليه وسلم) के आदेशों और उनकी ज़िन्दगी को पूरी तरह समझा जा सके। इल्‍म फिक़ (इस्‍लामी विधिशास्‍त्र) की बुनियाद इसलिए पडी़ की इस्‍लामी क़ानून को व्‍यवस्थित एवं संकलित रूप में पेश किया जाए। अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) के जीवन-चरित्र को सुरक्षित करने और आप (صلى الله عليه وسلم) के सहाबा (رضي الله عنه) के हालात को लिखित रूप में लाने के शौक़ ने इतिहास और जीवनी लेखन जैसी विद्या की बुनियाद डाली। ज़कात, मीरास, जिज्‍़या और ख़राज की समस्‍याऍ सुलझाने के लिए गणित जानना ज़रूरी था। हदीसें एकत्र करने वालों ने हदीसों की तलाश और प्राप्ति के लिए दूर-दूर के सफ़र किए। हज की अदायगी के लिए इस्‍लामी दुनिया के कोने-कोने से लोगों के क़ाफिले मक्‍का का रुख़ करने लगे और इस बात ने पर्यटन का शौक़ पैदा किया, और इस प्रकार भूगोलशास्‍त्र की बुनियाद पडी़। चिकित्‍सा विज्ञान एवं स्‍वाभावित ज़रूरत थी और उसकी ओर इस स्‍वाभाविक ज़रूरत के अलावा इस कारण भी ध्‍यान दिया गया कि अल्‍लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने इसकी हौसला अफ़ज़ाई की थी।

कहने का अर्थ यह है कि मुसलमानों में ज्ञान-विज्ञान की सरगर्मी ख़ुद इस्‍लाम के कारण शुरू हुई।
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